Tuesday, March 27, 2012

कविता - मंच

मुसाफिर हु 

मै हु एक छोटा-सा मुसाफिर
यत्न करता साथ चलने को 
ऊँगली की आशा से परे,
इशारो से ही बता दो मंजिल का पता
चला जाऊंगा अकेला न समझकर 
बनकर एक छोटा-सा मुसाफिर
अगर आप थोडा-सा भी साथ दे !!








तन्हा मै ये सोच की तन्हा हु 
इस तन्हाई में गैर भी मिले तो
यकीं  उन पर भी  होगा 
उन्हें भी साथ कर लूँगा
थोडा सा साथ पाकर 
आंधी-काँटों पर चलने को 
अगर आप थोडा-सा भी साथ दे !!

                                                                                    -अखिल 

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